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बाग के बहाने
शंभू दयाल वाजपेयी
बरेली वालों खुश हो जाओ! अपने शहर का गौरव कहे जाने वाले ऐतिहासिक कंपनी बाग का रूपांतरण हो रहा है। यह पार्क का रूप ले रहा है| अब यहाँ शादी- ब्याह , काकटेल पार्टियाँ वगैरह होंगी | महफ़िलें सजेंगी | नगर निगम पैसे कमाएगा | अपनी आमदनी बढ़ाएगा| निकटवर्ती जिलों के लोग भी इस खबर पर खुश(या खिन्न)हो सकते हैं। छात्र- छात्रायें भी। आखिर उनके लिए भी इस महानगर में यही घूमने-टहलने का सब से बड़ा और अच्छा ठिकाना है। विचारणीय विन्दु हो सकता है बाग़ ज्यादा महत्वपूर्ण होता है या पार्क?
समुन्नत समाज में वन-बागों का सदैव सर्वोपरि महत्व रहा है। कह सकते हैं पौराणिक -ऐतिहासिक काल से । नगर-ग्रामों के अपने एक से बढ़ कर एक सुन्दर बाग (उपवन) होते थे, राजा-रईसों के अपने। शायद पर्यावरणीय संतुलन बनाने की अपनी उपादेयता के लिए और अपनी जीवनदायी शक्ति सम्पदा के लिए बन – बाग मानव जीवन के साथ ही वजूद में आ गए थे । बाबा आदम की निषिद्ध फल खाने की प्रसिद्ध कहानी अदन के बाग में हुई थी। भगवान ईसा -जीसस क्राइस्ट -क्रूसित किये जाने से पहले गेथसेम के बाग से बंदी बनाये गए थे। वे शिष्यों के संग संध्या-प्रार्थना को बाग जाया करते थे।
बागों के महत्व को ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेजों ने भी समझा था। उन्होंने ने भारत में जिन शहरों में अपने फौजी अड्डे बनाये वहां हवाखोरी के लिए सब से पहले सघन बाग संरक्षित किये। ये कंपनी बाग के नाम से जाने जाते थे। बरेली में एक बड़े घेरे में कंपनी बाग है जिसे अब गांधी उद्यान भी कहा जाता है। बिल्कुल हार्ट आफ द सिटी में। अफसर से ले कर व्यापारी तक बड़ी संख्या में लोग इसमें मार्निग वाक को आते हैं । उनके लिए यह स्वर्ग सा है। यह बरेली ही नहीं रूहेलखंड का सब से बड़ा और पुराना सार्वजनिक बाग है। उत्तर भारत में अंग्रेज सबसे पहले बरेली में ही काबिज हुए थे। यहां की छावनी (कैन्टोन्मेंट)वर्ष 1811 में अस्तित्व में आ गयी थी। यह देश की सबसे पुरानी छावनियों में एक है। वैसे वारेन हेस्टिंगस के फौजी जवान यहां रूहेला शासक हाफिज रहमत खां की शहादत के साथ ही लगभग 236 साल पहले यहां जम गए थे। सन् 1801 के संधिपत्र के जरिए पूरा रूहेलखंड अवध के नवाब के हाथों से खिसक कर ईस्ट इंडिया कंपनी की मुट्ठी में आ गया था। अंग्रेजों का ही बसाया छावनी क्षेत्र का प्रमुख बाजार- बीआई(ब्रिट्रिस इंफ्रेंट्री) बाजार है।
छावनी क्षेत्र और नगर से जुड़ा हुआ ही कंपनी बाग है।अंग्रेजों से पहले यह रूहेला शासकों का बताया जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुस्लिम अमीरों ने भी बागों को हमेशा अपनी शानओशौकत से जोड़े रखा। इन्हें गले लगाया। कंपनी बाग में पहले एक तालाब भी था जो चार पांच साल पहले आय बढ़ाने के नाम पर ही पट चुका है। साथ ही कुछ हरे पेड़ भी साफ हो गए थे।
जीवन के उद्भव से ही वन-बागों का मानव से चोली दामन का साथ रहा है। भारतीय प्राचीन साहित्य और (वास्तु) शास्त्र में भी उपवनों का समृद्ध वर्णन है। सुरुचि सम्पन्न लोगों कें घरों से जुड़े अहातों में सुदंर गृहोपवन होते थे। ग्रामोपवन सरकारी-सार्वजनिक होते थे। इन में वाटिकाऔर सरोवरादि भी होते थे।
रामायणें तो मनोरम बागों के जीवंत वर्णन से भरी हैं। जनकपुरी के भूप बाग में गौरि पूजन को गयी सीता को देख मर्यादा पुरुषोत्तम राम का परम पुनीत मन क्षोभित(प्रेमालोडित )हुआ था।
भूप बाग बर देखेउ जाई, जहं बसंत ऋतु रही लोभाई
लागे विटप मनोहर नाना, बरन बरन के बेलि विताना।
बागु तड़ागु विलोकि प्रभु, हरसे बंधु समेत
परम रम्य आरामु यह, जो रामहिं सुख देत।
राम ने यही ‘कंकन किंकिन नूपूर धुनि’ सुनी थी।
उसके पूर्व यहीं के आमों का एक अत्यन्त प्यारा बाग देख महर्षि विश्वमित्र ठहरे थे-
देखि अनूप एक अंबराई, सब सुपास सब भांति सुहाई
कौसिक कहेउ मोर मनु माना, इहांरहिअ रघुवीर सुजाना।
भलेहि नाथ कह कृपा निकेता, उतरे तहं मुनिवृंद समेता।
महापराक्रमी रावण का बाग बेजोड़ था। उसमें वन, उपवन, वाटिका सभी थे। अपहृत सीता अशोक बाटिका में ही रखी गयी थीं। यही बाग रामदूत के लिए लंका दहन की पृष्ठ भूमि बना।
तहं अशोक उपवन जहं रहई, सीता बैठि सोचरत रहई।
चलेऊ नाई सिर पैठेउ बागा, फल खायउ तरु तोरइ लागा।
किंष्किंधा नरेश सुग्रीव का अपना बिहार बाग था-मधुबन। वृक्षों-लताओं से युक्त मधुबन अत्यन्त मनोहारी था। सुग्रीव का मामा दधिमुख हजारों वानरों के साथ इसका प्रधान रखवाला था।
सीता खोजकर लौटे हनुमान के संग क्षुधार्त वानरों ने टीम लीडर अंगद से अनुमति लेकर यहां फल खाये।
देवराज इन्द्र का अपना नन्दन वन था। अयोध्या की वन सम्पदा का तो कहना क्या-
सुमन वाटिका, बाग वन, विपुल विहंग निवास
फूलत फलत सुपल्लवत, सोहत चहुंपुर पास
.. वन उपवन वाटिका तड़ागा, देखतपुरी अखिल अघ भागा।
आज यह स्थिति नहीं है। भौतिकता की दिशाहीन दौड़ में नगरों से लगे वन तो पहले ही उजड़ चुके हैं। बाग-बगीचे भी बीते दिनों की बात होते जा रहे हैं। गांवों में अधिकांश हरे बाग अंधाधुंध कटान की भेंट चढ़ चुके हैं। शहरों में बचे नहीं, जो हैं संरक्षण संवर्धन के प्रयास न होने से खतरे में हैं। दम तोड़ रहे हैं।
आज जब पर्यावरणीय प्रदूषण दिनों दिन खतरनाक ढंग से बढ़ रहा है, उद्यान -बागों का महत्वऔर बढ़ गया है। ये जीवनदाता और स्वास्थ्य प्रदाता हैं। औषधीय गुणों और स्वच्छ प्राणवायु से ये शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायी होने के साथ ही हमारी मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियां जाग्रत करने में भी सहायक होते हैं। पार्क एक प्रकार से इन उद्यानों का भ्रष्ट रूप हैं। पार्कों से जीवन की महत्तर जरूरतें नहीं पूरी होंती। वे जन संकुल शहरों की एक अनिवार्य आवश्यकता तो हैं, पर उद्यानों जैसे फलदायी नहीं। एक पेड़ पीढियों तक बहुत कुछ देता रहता है। बागों और पार्कों में स्वभावगत व गुणातमक अंतर होता है। बाग में वृक्षों की प्रधानता होती है। बहार – रसधार होती है। वे फलते हैं, फुलवारी फूलती है।आज समय की सबसे बड़ी मांगों में है उजड़ते उद्यानों को बचाना -बढ़ाना। जो उजड़ गये हैं उन्हें फिर से हरा भरा करना। इन्हें आदर-प्रेम के साथ संरक्षण, संवर्धन देना। नगर के बचे खुचे सार्वजनिक बागों को चालाकी पूर्वक पार्को में बदलने के प्रयास होते रहते हैं। इन्हें सख्ती से रोका जाना और मूल स्वरूप के निकट लाये जाने के संगठित प्रयास होने जरूरी हैं। सुन्दरीकरण के नाम पर बरेली के गांधी उद्यान का सरोवर पहले ही पाटा जा चुका है। कई फलदार पेड़ काट दिये गये। फिर व्यावसायिक उपयोग को धड़ल्ले से निर्माण जारी है। मुख्य नगर अधिकारी का कहना है कि इस उद्यान में आने से शुल्क लिया जाएगा। टिकट लगेगा। शादी- पार्टियों वगैरह के लिए ठेके पर दिया जा चुका है। आवासीय या व्यावसायिक उपयोग कर और भीतरी व बाह्य प्रदूषण -अपशिष्ट बढ़ा कर कैसा पर्यावरण संरक्षण?इससे किसका भला होगा? पेंट चूना करा देने से कैसा सौन्दर्यीकरण? वृक्षारोपण को बढ़ावा दिये और इसका व्यावसायिक उपयोग रोके बिना क्या उद्यान को लंबे समय तक बचाया जा सकता है? ऐसे कुछ सवालों पर प्रबुद्ध लोगों को गंभीरता से सोचना और आगे आना होगा।
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