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राम ने बतायी मित्रता की आचार संहिता
फ्रेंडशिप यानी मित्रता । रामायण का तो यह प्रमुख केन्द्रीय तत्व है। पूरी रामायण प्रेम और मैत्री का ही अमर संदेश देती दीखती है। प्रेम ही मित्रता या मैत्री का आधार है। समता उसकी अनिवार्य शर्त है। समता के व्यावहारिक धरातल पर ही मैत्री टिकती है। मित्रता के संदर्भो में रामायण,खास कर ,श्रीरामचरित मानस श्रेष्ठतम पथ प्रर्दशक है। यह प्रेम-स्नेह का संदेश-सागर है। नियम,अनुशासन और व्यवस्था का विधान है।
रामायण के राम आजीवन मित्रता करते कराते हैं और उसे पूरे उदात्त भाव से निबाहते हैं। ऐसा लगता है जैसे वह मित्रता और इसके केन्द्र तत्व
प्रेम-समता की महिमा बताने को ही आए हैं। राम जाति-वर्ण नहीं मानते। प्रेम मार्गी हैं। सखा-बंधु बनाते हैं। जम कर मित्रता करते हैं और निजी तौर पर सखा-बंधु के रिश्ते ही पसंद करते हैं। (वैसे कृष्ण भी सखा भाव के ही ध्वजी हैं।)
राम अछूत निषाद राज गुह से लेकर गीधराज जटायु, सुग्रीव, विभीषण, कोल किरात, वानर, भालू तक मित्रता करते हैं। मित्र को बिना किसी भेदभाव के आकंठ(भरि अंक)गले लगाते हैं। अपने पास बैठाते हैं। इस व्यवहार में उनके भाई भी साथ होते हैं। सख्य- समानता में भाव प्रर्दशन का यही तरीका उन्हें सर्वप्रिय है। रावण के भाई विभीषण के आने पर –
भुज विसाल गहि हृदय लगावा.. .
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी, . . .
भाई का मित्र अन्य भाई के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है और उसके कैसा व्यवहार करना चाहिए ,भरत के माध्यम से रामायण यह भी बताती है। वनवासित राम को मनाने के लिए साज -समाज के साथ भरत के जाने का प्रसंग। मार्ग में मिले निषाद राज के मुनियों के प्रणाम करने पर गुरू वशिष्ठ ने भरत को बताया यह राम का मित्र है। भाई राम का मित्र है यह सुनते ही भरत ने क्या किया? जिस रथ पर बैठ कर जा रहे थे उससे तुरंत उतर कर उमड़ते प्रेम के साथ गुह से मिलने को बढ़े। गुह ने अपने गांव, अपना नाम और अपनी जाति बता कर भूमि पर माथा टेक कर प्रणाम किया।(मध्य कालीन सामंती व्यवस्था में प्रणाम करने की ऐसी परंपरा थी)। भरत ने गुह को प्रेमातिरेक से ऐसे हृदय से लगा लिया मानो उन्हें छोटे भाई लक्ष्मण मिल गये हों।
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ
मनहुं लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदय समाइ ।
निम्न जाति-वर्णी जिसकी परछाई भी छू जाने पर नहाना पड़ता हो उसी निषाद को राम के छोटे भाई प्रेम से भरे हुए गले मिल रहे हैं।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता,मिलत पुलक परिपूरित गाता ।
उसी मित्र निषाद का हाथ थामे प्रेम मगन भरत आगे चले। कभी वह उसके कंधे पर हाथ रख कर चलते हैं। यही नहीं मित्र धर्म निभाते हुए गुह भरत को समझाते हुए दुखित न होने को कहते हैं। भरत को धैर्य होता है।
चले सखा कर सो कर जोरे, सिथिल सरीरु सनेह न थोरे
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू, नाथ करिय कत बादि बिषादू
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा,बास चले सुमिरत रघुबीरा।
दोनों ऐसे लग रहे हैं मानो प्रेम और विनय शरीर धारण कर जा रहे हों। यही नहीं मातायें भी बेटे के मित्र को पुत्रवत ही मानती हैं।
जानि लखन सम देहिं असीसा,जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।
राम और उनके भाइयों को संबोधन में सखा शब्द सर्वाधिक प्रिय है। मित्रों के साथ वार्तालाप में सखा शब्द की भरमार है। जैसे विभीषण से-
खल मंडली बसहु दिन राती, सखा धरम निबहै केहि भांती।
निषाद को विदा करते हुए वह हमेशा अयोध्या आते जाते रहने को कहते हैं-
तुम मम सखा भरत सम भ्राता, सदा रहेहु पुर आवत जाता।
राम -सुग्रीव मैत्री प्रसंग मित्रता के उच्चतम मानदंडों का निदर्शक है। दोनों ने दोस्ती की तो दिल में कुछ छिपा कर नहीं रखा।
कीन्ह प्रीति कछु बीच न राखा।
लक्ष्मण से सारी बात सुन वानर राज सुग्रीव के आंखें में आंसू आ गये। उन्हों ने राम को धैर्य बंधाया। आश्वस्त किया कि वह चिंतित-दुखी न हों । सीता जरूर मिलेंगी और इस के लिए वह हर उपाय-मदद करेंगे। सुग्रीव की बात से राम को राहत मिली। वे प्रसन्न हुए और फिर उन्हों ने सुग्रीव से वन में रहने का कारण पूछा। सुग्रीव के बताने पर उन्होंने निश्चिंत हो जाने को कहा और कहा कि मेरे बल के भरोसे चिंता मुक्त हो जाओ। मैं हर प्रकार से आपके काम आऊंगा।
सुनु सुग्रीव मारिहऊं बालिहि एकहिं बान
ब्रह्म रुद्र सरनागत गए न उबरिहिं प्रान।
सखा सोच त्यागहु बल मोरे , सब घटब काज मैं तोरे।
राम इसके बाद सुग्रीव को मित्रता पर एक पूरी आचार संहिता बताते हैं। वह कहते हैं कि मित्र के दुख से दुखी न होने वाले को देख लेने पर ही भारी पाप लगता है। अपने पहाड़ जैसे दुख को धूल के समान और मित्र के धूल जैसे दुख को भी पहाड़ के समान मानना चाहिए। जो ऐसी सहज बुद्धि नहीं रखते वह मित्रता ही क्यों करते हैं? मित्र को चाहिए कि वह कुमार्ग से हटा कर अच्छे रास्ते पर ले जाए। गुणों को बताये, अवगुणों को छिपाये। लेन- देन में संदेह-शंका न करे और सार्मथ्यानुसार सदैव हित करे। वेद शास्त्र कहते हैं कि श्रेष्ठ मित्र विपत्ति काल में जरूर स्नेह बनाये रखते हैं। मन में कुटिलता हो ,पीठ पीछे अहित करे और सामने होने पर बनावटी मीठे बातें बोले। जिसके मन की गति सांप की गति के समान टेढ़ी हो ऐसे कुमित्र को छोड़ देने में ही भलाई है।
जे न मित्र दुख होंहि दुखारी, तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी
निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्रक दुख रज मेरु समाना
जिनक असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ,गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा
देत लेत मन संक न धरई,बल अनुमान सदा हित करई
विपति काल कर सदगुन नेहा,श्रुति कह संत मित्र गुन एहा
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