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जब हम देखते हैं कि धर्म के नाम पर जितना रक्तपात और अमानुषिक अत्याचार हुए उतना किसी अन्य कार्य के , साम्राज्य विस्तार के लिए भी नहीं, तो लगता है कि
इससे अच्छा तो हम अधार्मिक ही भले । आज भी जब पाते हैं कि धर्म पर ही सारी मारामारी है, लोग झट से मरने – मारने को उतारू हो जाते हैं और धर्म के बडे बडे चोगे पहने नामवर लोग विद्वेष व जड़ता की जहरीली सांसें छोड़ते रहते हैं तो लगता है कि धर्म ही सारे फसाद की जड़ है। प्रगतिशीलता के पक्षधर सरल मन में तब धर्म के प्रति एक जुगुप्सा का, अस्वीकार्यता का भाव आता है।
इन सब के बावजूद धर्म सभी देश, काल व समाजों में सनातनी सर्वाधिक सहज
शक्तिशाली तत्व बना हुआ है । आज भी अगर धर्म प्रवंचक हैं तो सच्चे सेवादार
भी। कितने ही लोग धर्म के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं।
शिक्षा,चिकित्सा,भोजन-पानी आदि के कार्य सेवा भाव से हो रहे हैं। नि:स्वार्थ
भाव से चुपचाप कितनी संस्थायें बेसहारा बच्चों,बूढों, महिलाओं, यहां तक कि
पशु- पक्षियों तक की भलाई में लगी रहती हैं। ऐसे धर्मनिष्ठ लोगों की वजह से
लाखों करोड़ों लोगों व जीव जंतुओं के दुख दर्द कम होते हैं और उनकी जीवन यात्रा
आसान होती है। कई उच्च पदस्थ लोगों के न्याय प्रियता के किस्से प्रेरणादीप
बनते रहते हैं।
कहा जा सकता है कि विवाद- वैमनस्यता की जड धर्म नहीं ,धर्म का अज्ञान व
सम्यक समझ न होना है। धर्म के नाम पर सजीं स्वार्थी -सुविधाभोगी लोगों की
दुकानें हैं।
धर्म तो व्यक्ति को व्यवस्थित, संस्कारित ,संयमित और अनुशासित
करता है। देश-समाज को धारण करता है। धर्म के बिना देश-समाज का अस्तित्व प्राय: असंभव है। कानून के फंदे और पुलिस- फौज की लाठी – गोली से अधिक धर्म लोगों को सुधारने में सहज कारक बनता है।
धर्म तो गति है,विवेक है। जडता व दुराग्रह नहीं। प्रगति है, विकास है, ठहराव
नहीं। क्या करणीय है और क्या अकरणीय की समझ है। सह अस्तित्व है। हम भी
जियें,दूसरा भी जिये का भाव – कर्म है।
धर्म उच्च कोटि के कला, शिल्प , साहित्य, संगीत के सृजन और ज्ञान- विज्ञान का आधार है। उदात्त कोमल भावनाओं और वैचारिक क्रांतियों का जनक है।
धर्म शास्वत है। सर्वव्यापी है। धर्म के बिना कोई रह नहीं सकता। न्यूनाधिक सभी धर्माश्रित होते हैं। हम जो भी प्राकृतिक कार्य करते हैं धर्म है। सांस लेते हैं,वह भी धर्म। हम धर्म से बिदक- बच कर नहीं रह सकते। अपने शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास धर्म है। परिवार, बच्चों, देश-समाज के प्रति अपने रिश्ते- कर्तव्यों का निर्वहन धर्म है।
आस्तिकता का धर्म से कोई संबंध नहीं है। नास्तिक भी धार्मिक होता है और आस्तिक भी किसी मोड पर सम्यक रूपेण धर्म का पालन कर्ता नहीं हो सकता। नास्तिक का अपना धर्म होता है। ईश्वरभीरु और पूजापाठी होना ही धर्म नहीं है। ईश्वर को न मानने वाला जाग्रत विवेक और कर्म कुशल ब्यक्ति भी धार्मिक होता है। ईश्वर को इससे कोई फर्क नहीं पडता कि कोई उसे मान रहा है या नहीं। वह निरपेक्ष है। धर्म में कर्म प्रधान है। तदनुसार फल चखना पडता है। जिसका विवेक जितना ऊंचा और कर्म जितने श्रेष्ठ वह उतना धार्मिक होता है। जो इस जीवन- जगत व्यवस्था को बिगाडे या बिगाडने का प्रयास करे वह अधार्मिक होता है।
धर्म पुरुषार्थ चातुष्टय का पहला अंग है। धर्म तथा अर्थ साधन हैं तो अन्य दो पुरुषार्थ -काम व मोक्ष साध्य । धर्म निष्ठा से लौकिक जीवन के काम और अर्थ सधते हैं तो पारलौकिक जीवन के लिए अध्यात्म मार्ग खुलता है। धर्म ही मोक्ष, ज्ञान और भक्ति की दुर्लभ गति का दाता है।
धर्म तलवार के बल पर नहीं फैलता। सामरिक शक्ति से साम्राज्य ही बढता है।
तलवार से लोग जीते जा सकते हैं ,उनके दिल नहीं। धर्म फलता फूलता है अपने
उपांगों – प्रेम करुणा,दान दया, समता , सहयोग -से। धर्म से दिल जीते जाते हैं।
इस्लाम और ईसाइयत के संदर्भ में भी यही बात है। ये दोनों भी तलवार की नोक पर नहीं फैले। धर्म का छद्म मुखौटा पहने साम्राज्यवादी -सामंती लोग धर्म के
प्रति भ्रमित भी हो सकते हैं और ऐसे चालाक भी जो जानते हैं कि धर्म की आड में
उन्हें आसानी से जनसहयोग और स्वीकार्यता मिल जाएगी। अनुयायी भी धर्म के मर्म से अनजान हो सकते हैं । वे कुछ बाह्य क्रियाओं को ही धर्म मानते रहते हैं और आसानी से बह जाते हैं।
एक बात और ध्यान देने की है कि धर्म कभी सायास फैलाया नहीं जाता। यह
संस्थापित – पुर्नस्थापित किया जाता है । धर्म की रक्षा की जाती है रक्षा
करने वाले की धर्म रक्षा करता है- धर्मो रक्षति रक्षक: । भगवान महावीर, भगवान
तथागत बुद्ध ,भगवान ईसा मसीह , पैगम्बर मोहम्मद साहब हों या महान गुरु गोविंद सिंह जी महाराज सभी ने केवल धर्म की रक्षा की । संस्थापना की । यही श्री राम और श्री कृष्ण ने किया। इसे गीता – रामायण के इन संदर्भों में देखा जाना
चाहिए-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ……
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।
जब जब होहिं धर्म कै हानी, बाढहिं असुर महा अभिमानी
तब तब धरि प्रभु मनुज शरीरा , हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।
ईसा, महावीर या बुद्ध किसी ने तलवार तो क्या डंडा भी नहीं उठाया । हजरत
मोहम्मद और गुरू गोविंद सिंह ने हथियार उठाये तो धर्म विस्तार करने के लिए
नहीं, अनुयायिओं की , धर्म की रक्षा में उठाये। दोनों शासक और बहादुर सैन्य
कमांडर होने के बावजूद हृदय से संत ही रहे। किसी ने बलात अनुयायी बनाने की बात नहीं की।
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