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मूल में है सुख की चाह
हम कितना ही उछल कूद लें,पर क्या हम प्रकृति, उसके रहस्यों और रचयिता को
जान पाते हैं ? कौन हैं, कहां से आये और कहां जायेंगे- ये सवाल सदियों से जस के तस हैं। सब वैसा ही अबूझ, रहस्यमय और ऐन्द्रजालिक जैसे बुद्ध- महावीर और ईसा- मोहम्मद से पहले था। क्या कोई बड़ा से बड़ा वैज्ञानिक आज भी आकाश के आकार -प्रकार व रूप- रंग की कुछ थाह पा सका है। रामायण में काक भुशुंडि जी पक्षिराज गरुड से यही तो कहते हैं-
तुम समान खग मसक प्रजंता, नभ उडाहिं नहिं पावहिं अंता ।
कोई कितना ही उडने वाला हो आकाश का ओर छोर कहां पाता है।
जगत इन आंखों से नहीं दिखता। जो दिखता है वह केवल आभास मात्र है। केवल लगता है कि दिख रहा है। हम देख रहे हैं लेकिन सांगोपांग नहीं। ऐसा नहीं जिससे बोध हो। ऐसा नहीं जिसके बाद देखने को कुछ शेष न रहे। हम जो देखते या जो दिखता है, भ्रम सा है। प्रतिपल परिवर्तनशील । जगत को सम्पूर्णता के साथ सूंघा भी नहीं जा सकता। वह घ्राणेन्द्रियों की पहुंच से भी परे है। सुना, छुआ या चखा भी नहीं जा सकता। मन से अगम्य है। विचार- कल्पना कुछ भी उसका एक कोना भी नहीं छू पाते। यह इंद्रियों का बिषय ही नहीं है। इंद्रियातीत, इंद्रियों की शक्ति-सामर्थ्य से परे है। फिर जगत भी तो ईश्वर का आभास मात्र ही है। ईश्वर तो इस से भी ज्यादा व्यापक-बड़ा है। आखिर वह उसका सर्जक-नियंता है। इकलौता मालिक । जगदीश्वर।
व्यक्ति जब थकता , कमजोर पडता है या बडे बडे प्रतापी, बलशाली,शक्ति- ऐश्वर्यशाली किसी मोड पर असहाय, निरुपाय, दयनीय होते हैं तो लगता है कि कोई अदृश्य पराशक्ति है जो सब को नचा रही है। सब या कुछ भी हमारे हाथ -वश
में नहीं है। हमारे वश में है क्या ? न जन्म और न सांसें लेना – न लेना। न जीवन , न मृत्यु । कुछ भी तो नहीं। हम हैं केवल खिलौना जिसकी डोर कहीं और है ,जब कि भ्रमवश हम समझते स्वयं को शक्तिमान नियंता। हमारी शक्ति-सामर्थ्य और ज्ञान-विज्ञान सब ससीम है जब कि सामने है तो असीम – अनंत । यहां विलियम शेक्सपीयर और गोस्वामी तुलसी दास दोनों एक ही बात कहते दिखते हैं। life is like a stage where men has to play और जग पेखनि(नाट्यशाला) तुम देखनिहारा विधि हरि संभु नचावनि हारा। या फिर वह फिल्मी गीत – जितनी चाभी भरी राम ने उतना चले खिलौना…..। यानी जिंदगी एक भ्रम है। विधि प्रपंच है। जो लगती सत्य के समान है। यह विचार -चेतना ही दर्शन है। जो हमें धर्म और फिर अध्यात्म की ओर ले जाता है।
हर जीव जीना चाहता है। मनुष्य भी। जीने में उसे सुख मिलता है। इस
सुखेच्छा के आगे वह बेबस है। अकेला तो जी नहीं पाएगा। इस लिए परिवार- समूह के संबंधों की शरण में सुरक्षा -सुख तलाशता है। यहां एक और सर्व शक्तिशाली तत्व उभरता है- प्रेम। प्रेम सुख सरिता-सुख सागर है।
समूह-समाज, देश-दुनिया में हम कैसे सुखपूर्वक रहें , इसी आंकाक्षा-विचार से धर्म वृत्ति – भाव की उत्पत्ति होती है। स्नेह, सौहार्द, समन्वय, सामंजस्य, सहयोग, सह-अस्तित्व और सहनौभुनक्तु की जरूरत महसूस होती है। करणीय- अकरणीय को लेकर प्रवृत्ति-निवृत्ति होती है। यह अंत:करण जागृति भी हर एक को नहीं होती। हजारों में कोई एक धर्मशील होता है। रामायण कहती है – नर सहस्र मंह सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रत धारी।
धर्म पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ पालन में भी सुख मिलता है। पुरुषार्थ की प्रेरणा और प्रेम जीवन के साथ ही मृत्यु का भी महत्व बताते हैं। तब हम दूसरों के लिए मृत्यु का वरण कर जीने से ज्यादा सुख अनुभव करते हैं। धर्म जीव के ,ब्यक्ति के लिए, है भगवान के लिए नहीं। जब तक जीव- जगत है, तब तक धर्म है।
धर्म अकेला नहीं रहता। धर्म को पकडने पर शीलता भी आती है। शील यानी नैतिकता। नैतिकता संयम और त्याग का फलितार्थ है। अर्थात जो नैतिक नहीं है वह धार्मिक नहीं है। संयम- त्याग आते हैं विवेक और प्रेम से। यानी विवेक (क्या अच्छा है और क्या बुरा की समझ और उसका पालन) तथा प्रेम का उदात्त माधुर्य होना धर्मनिष्ठा के अनिवार्य तत्व हैं। कह सकते हैं धर्म व्यक्ति के श्रेष्ठ- श्रेष्ठतर में बदलाव का कारक- उत्प्रेरक है। इसी जीवन में एक नये जन्म की ओर ले जाता है। किसी दार्शनिक का कथन है- man’s main task in life is to give birth to himself. इसे टान्स्फारमेशन, व्यक्तित्व बदलाव या आचार-व्यवहार में परिवर्तन कह सकते हैं। यह वैयक्तिक होता है जन्मना नहीं। किसी परिवार या समुदाय में जन्म लेने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो जाते। जन्म से धर्म का संबंध मात्र क्रियात्मक हो सकता है जिससे निज को या समाज को लाभ नहीं होता। बल्कि जड़ता आ
जाने से दोनों को हानि होती है। धर्म रथ पर ब्यक्ति को सम्पूर्ण मन- हृदय
से खुद ही सवार होना पडता है तभी उसकी धार्मिक यात्रा शुरू होती है और वह
धार्मिक कहा जा सकता है। धर्म का आश्रय संसार सागर को सुगमता से पार करा देता है। राम रावण युद्ध प्रसंग में भगवान श्री राम उन्हें नंगे पैर पैदल और रावण को सुसज्जित रथ में देख अधीर हुए विभीषण को धर्म रथ के बारे में बताते हैं-
सत्य व शील(सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा पताका है। बल, विवेक ,दम(इंद्रिय निग्रह) और परोपकार ये चार उस रथ के घोडे हैं जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जुडे हुए हैं। ईश्वर का भजन ही उस रथ का चतुर – निष्णात
चालक- सारथि है। वैराग्य ढाल और संतोष तलवार है। दान फरसा, बुद्धि प्रचंड शक्ति और श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल व स्थिर-शांत मन तरकश के समान है। शम(मनोनिग्रह) , यम(अहिंसा आदि) और नियम (शौच -भीतर व बाहर की सफाई) ये बहुत से बाण हैं। ऐसे रथ वाला वीर जन्म मृत्यु वाले संसार रूपी महान दुर्जय शत्रुओं को भी जीत सकता है। दान, दया, समता, संयम ( परहेजगारी) और सफाई आदि धर्म रथ के प्राय: ये सभी गुण अपनाने के लिए कुरान मजीद में भी बारबार कहा गया है।
सुमति कुमति सब के उर रहहीं …।सुमति का विकास ही धर्म का अंकुरण – प्रस्फुटन है। परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई , कह कर रामायण परोपकार को सबसे बडा धर्म बताती है। महर्षि वेद व्यास एक बात गांठ बांध लेने को कहते हैं –
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्
,आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। हे लोगो ,धर्म का सार सुनो और सुन कर धारण करो कि जो हम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरे के प्रति न करें।
धर्म मार्ग पर चलने वाले को आचार-व्यवहार में शुद्धि जरूरी है। महान जैनाचार्य आचार्य महाप्रज्ञ जी का कहना था कि मात्र बाह्य क्रियायों से अंत: परिवर्तन नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति को आत्म निरीक्षण करते रहने चाहिए कि भाव- वृत्ति कितनी बदली। ऐसा तो नहीं कि हम कोरी क्रिया करते चले जा रहे हैं और निष्पत्ति नहीं है।
धर्म पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है। यह वीर, विवेकी और सर पर कफन बांध कर चलने वाले पुरुषार्थी लोगों के लिए है। कायर- काहिल इस पर नहीं टिक सकते। गुरुवाणी में कहा गया है कि सत्य धर्म के मार्ग पर चलना है तो ध्यान रखें कि कुर्बानी और त्याग करना पड सकता है। इस लिए मन में भय और भ्रम नहीं होना चाहिए। किसी प्रकार के भय या भ्रम होने पर शहादत के मार्ग पर नहीं चला जा सकता। सूरा सो पहिचानिये जो लरै दीन के हेत, पुरजा पुरजा कटि मरै , कबहुं न छाडै खेत। भगवान ईसा और सिख गुरुओं ने यही किया। पैगम्बर मोहम्मद ने भी बडी तकलीफें सहीं। पत्थर खाये।
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