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इस्लाम सनातन धर्म की ही अंर्तधारा
इस्लाम वैदिक विचारधारा के सर्वाधिक निकट है। दरअस्ल, दार्शनिक-आध्यात्मिक दृष्टि से वह सनातन धर्म की ही एक सशक्त अंर्तधारा है। क्रिया-व्यवहार में देश-काल , परिस्थिति के सापेक्ष बदलाव- विभिन्नता होती है।
विचार कर देखें तो इस्लाम के रूप में धर्म के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद वैदिक परंपरा के मंत्र दृष्टा श्रृषि और गीता के स्थिर बुद्धि कर्मयोगी ही लगते हैं। अरब और भारतीय भूभाग के लोगों के ब्यापारिक, सांस्कृतिक और शिक्षा-ज्ञान के प्रगाढ रिश्ते रहे हैं। करीबी रक्त संबंध भी माना जाता है। इस लिए इस्लाम और मोहम्मद के सनातन धर्म के सहज अनुकूल होने में कुछ अस्वाभाविक नहीं है। दोनों एकेश्वरवाद के पोषक हैं।
गीता गायक भगवान श्री कृष्ण और ईश्वर का संदेश सुनाने का दुर्लभ दायित्व पाये नबी मोहम्मद के जीवन वृत्त में कुछ आश्चर्यजनक समानतायें हैं। दोनों का जीवन जर्बदस्त संघर्षों से भरा रहा। दोनों ने कोई नया धर्म नहीं चलाया। केवल उसकी पुर्नस्थापना की। कृष्ण कहते हैं- धर्म संस्थापनार्थाय तदात्मानं सृजाम्यहम्। जब जब धर्म का क्षरण होता है और अधर्म बढता है, तब तब मैं धर्म की संस्थापना के लिए शरीर धारण करता हूं।
मोहम्मद ने भी वस्तुत: नया धर्म नहीं चलाया। उन्हों ने आदम, अब्राहम,नूह, मूसा और ईशा प्रभृति पैगम्बरों से चली आ रही धर्म-धारा को ही संस्थापित किया। (जीसस के लिए प्रयुक्त होने वाला अरबी शब्द ईशा संस्कृत के ईशा – ईश्वर से बना है)। मोहम्मद ने तो काबा को भी नहीं बनवाया था। उन्हों ने केवल मूर्तियां हटवा कर उसे बैतुल्लाह के रूप पुर्नप्रतीष्ठित किया था।
बाल कृष्ण को जननी देवकी का सान्निध्य नहीं मिला था। पैदा होते ही बाप वसुदेव कंश के भय से उन्हें रातोरात नंद के यहां गोकुल छोड आये थे। विमाता यशेदा ने पाला था। ईश्वर ने जिसे पैगम्बर के रूप में चुना उसका जीवन और कठिन था। कुछ दिन एक दासी और फिर रेगिस्तान के गांव की एक दाई हलीमा ने पांच वर्ष तक पाला था। मोहम्मद सम्मानित कुरैश घराने से थे। कुरैश में तब ऊंचे घरानों की औरतें बच्चों को स्तन पान नहीं कराती थीं। मजबूती और दृढता के लिए बच्चों का रेगिस्तान में पालन अच्छा माना जाता था।
कृष्ण हर एक को अपनी तरफ खींचने-आकर्षित करने वाला और मोहम्मद के मायने सब तरह से प्रशंसित। यानी नाम-अर्थ में भी साम्यता। दोनों चरवाहा थे। एक ने गायें तो दूसरे ने बकरियां चरायीं। दोनों ने धर्माथ लडाइयां लडीं। दोनों अच्छे कूटनीतिक, शासक,सुधारक, वक्ता और सैन्य सेनापति थे। एक अवतार था , दूसरा पैम्बर। दोनों ने कहा – ईश्वर एक ही है। उसके समकक्ष और कोई नहीं है।
एकेश्वरवाद के उद़्घोषक कृष्ण कहते हैं- अहं सर्वस्य प्रभवोमत्त: सर्वं प्रर्वतते। मैं संसार मात्र का प्रभव(मूल कारण) हूं औश्र मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो, चेष्टा कर, रहा है। शिर्क, अनैतिकता और भौतिकता में डूबने से बचो ,यह संदेश देने में मोहम्मद ने अपना पूरा जीवन खपा दिया।
मोहम्मद केवल पैगम्बर थे। अवतार या देवदूत नहीं। ईश्वर ने उन्हें लोगों तक अपना संदेश पहुंचाने को चुना था, यह दायित्व उन्हों ने बखूबी निभाया। वह व्यापारी और उम्मी, स्कूली-किताबी शिक्षित न होने के बावजूद उच्च कोटि के दार्शनिक और तपस्वी संत थे। आखिर ईश्वर ने अपने संदेश वाहक के रूप में उन्हें ही क्यों चुना ? यह सवाल पैगम्बर के जीवन काल में भी उठा था। इसका जवाब वैदिक विचार धारा में ढूंढने पर मिलता है। उच्च कोटि का साधक भी कभी कभी साधना के अंतिम सोपान के पास रुक जाता है। गीता की भाषा में इसे योगभ्रष्ट कहते हैं। ऐसे साधक की दो गतियां होती हैं। कुछ ब्यक्ति स्वर्गादि पुण्य लोकों में जाते हैं और वहां भोग भोग कर लौटने पर शुद्ध आचरण वाले श्रीमानों के घर जन्म लेते हैं तथा फिर साधनारत होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ योगभ्रष्ट साधक सीधे ज्ञानवान योगियों के ही कुल में ही जन्म लेते हैं और फिर परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ऐसे कुल में जन्म लेना दुर्लभतर है।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।
ऐसे योगभ्रष्ट साधकों को नये सिरे से प्रयास नहीं करने पडते। संचित स्थिति के ही आगे चलना होता है। साधन के संस्कार एक बार पड जाने पर फिर कभी नष्ट नहीं होते। कारण कि परमात्मा के लिए जो काम किया जाता है वह सत् हो जाता है और सत् का कभी अभाव नहीं होता। नभावो विद्यते सत: ..। मोहम्मद इसी श्रेणी के साधक थे। उनका जन्म इब्राहीम-इस्माइल जैसे परम योगियों (जो परमात्मा से एकाकार हो गया है) – नबियों के दुर्लभतर कुल में हुआ था। गीता की यह बात मोहम्मद के जीवन वृत्त से भी सिद्ध होती है। मोहम्मद जन्मना सादिक-सच्चे थे। उन्हे आत्मोन्नति के लिए बहुत प्रयास नहीं करने पडे।
मोहम्मद की जीवन -कथा और उनकी आदतें व स्वभाव के बारे में जानने से हमें वैदिक विचार धारा से उन के सामीप्य के बारे में समझने में आसानी होती है। संक्षेप में कहा जा सकता है- उनका बचपन बहुत कष्टों-अभावों में गुजरा। जन्म के पांच छह महीने पहले ही बाप अब्दुल्ला र्स्वगवासी हो गए। छह साल के थे मां अमीना बाप की कब्र दिखाने मदीना ले कर गयीं थीं। लौटते में रास्ते में बीमार पडने से उनका निधन हो गया। साथ गयी दासी वहां से मोहम्मद को लेकर आयी। दादा अब्दुल मुत्तलिब ने पाला। दो साल बाद उनकी भी मौत हो गयी फिर चाचा अबु तालिब सरपरस्त बने। 12 साल की उम्र में चाचा के साथ कारोबारी सफर में सीरिया गए। बताते हैं वहीं एक ईसाई साधु ने इनके पैगम्बर होने की भविष्यवाणी कर दी थी। 23-24 साल के साथ थे मक्का की धनी विधवा खदीजा का ब्यापारिक काफिला लेकर सीरिया गए। काफी मुनाफा कमाया। बाद में 40 वर्षीया खदीजा से शादी की। मोहम्मद तब 25 साल दो महीने के थे।
शादी से पहले ही मोहम्मद की सत्य निष्ठा की धाक पूरे मक्का में जम चुकी थी। लोग उन्हें अलअमीन ( विश्वसनीय, प्रामाणिक ) कहने लगे थे । स्वभाव और आदतें उन्हें श्रृषिवत बताती हैं। किताबों में मिलता है कि वह बचपन से ईमानदार,सत्यवादी, एकांत प्रिय और चिंतन मनन में लगे रहने वाले थे। खेल तमाशों से दूर हमेशा हक की धुन में रहते। बुद्धि और खुली आंखों से सृष्टि और जगत व्यवस्था का सूक्ष्म अध्ययन करते। पाय: चुप रहते। कम बोलते, मीठा बोलते और बिना जरूरत न बोलते। न किसी बात पर लोगों से उलझते।चेहरे पर मुस्कान होती। बात करने वाला मोहित हो जाता। हमेशा सक्रिय,चुस्त और सतर्क रहते। तेज चलते। निगाहों से पवित्र विचार और उच्च भावनाओं की झलक मिलती। गलत लज्जतों व नुकसानदेह दिलचस्पियों से कोसों दूर रहते। शराफत पर कोई उंगली नहीं उठा सकता था। नर्म मिजाज , खुश एखलाक। पांच बार वुजू करते। हमेशा स्वच्छ रहते। कहते साफ सफाई ईमान का अंग है। उसूल के पक्के। उसी समय खाते जब भूख लगती। कुछ कम ही खाते। वह मानते थे कि दुनिया की रंगीनी चार दिन की चांदनी है और यहां की लज्जतें – सुख सिर्फ वक्ती और एक दिन खत्म होने वाली हैं। सिर्फ अल्लाह ही उपास्य और माबूद है। धरती आसमान सब उसी के अधीन है। वह सब को उसके किये का बदला देगा।( मोहम्मद को ईश्वर दर्शन हुआ अगले अंक में)
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