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राम और मोहम्मद !
इलाहाबाद के लेखक-ब्लागर श्री केएम मिश्र ने पिछले आलेख ‘ वैदिक विचार धारा और पैगम्बर मोहम्मद’ पर अपनी प्रतिक्रिया में भगवान श्रीराम के संदर्भों में भी पैगम्बर ए इस्लाम के बारे में लिखने की अपेक्षा की है। आश्चर्यजनक सच है कि राम और रामायण के संदर्भों में विचार करने पर भी मोहम्मद वैदिक विचार धारा के सहज समीप और सजातीय लगते हैं। दोनों को निर्वासित या वनवासित होना पडा। दोनों ने धर्म की स्थापना को भयानक तकलीफें सहीं। दोनों घर से खाली हाथ निकले और अपनी सेना स्वयं संगठित की। युद्ध का नेतृत्व किया और एक ने लंका तो दूसरे ने काबा को आसुरी ताकतों से आजाद कराया। और तो और दोनों एक ही ऋतु -मास में पैदा हुए। मोहम्मद रबी उल अव्वल महीने में प्रकाशित हुए थे। तब यह मुबारक माह अप्रैल में पडा बताया जाता है। राम भी न बहुत सर्दी,न बहुत गर्मी वाले चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष में अवतरित हुए थे। दोनों नाम आस्थावान लोगों के लिए पाथेय बने रहेंगे।
अनवरत साधनारत रहे मोहम्मद को ईश्वर दर्शन हुए थे। ईश्वर ने उनका राजतिलक किया था। वैदिक विचार धारा के अनुसार मोहम्मद अमर हो गए। रामायण में ईश्वर के प्रति एक निष्ठ होना संत का गुण बताया गया है। गीता ने इस पर विशेष जोर दिया है। एक निष्ठ और एक बुद्धि वाले साधक को ईश्वर दर्शन होते हैं। मोहम्मद ऐसे ही साधक-संत थे। परमात्मा को देखने -जानने की उनकी चाहत की डोर कभी टूटी नहीं।
एक बुद्धि वह होती है जो अविचलित भाव से परमात्मा में ही लगी टिकी रहती है। श्री कृष्ण कहते हैं-
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकह कुरुनंदन
बहुशाखाह्यनंताश्च बुद्धयोअब्यवसायिनाम्।
हु अर्जुन, निश्चय वाली बुद्धि एक होती है। जिसका एक निश्चय नहीं , उसकी बुद्धियां अनंत और बहुत शाखाओं वाली होती हैं । जिसका उद्देश्य परमात्मा का होता है, उसकी बुद्धि एक निश्चय वाली होती है, क्यों कि ईश्वर भी एक ही है। जिसका उद्देश्य सांसारिक होता है उसकी बुद्धि असंख्य कामनाओं वाली होती है, क्यों कि कामनाओं का अंत नहीं होता।
ईश्वर दर्शन के लिए एक बुद्धि के साथ ही स्थिर बुद्धि का होना भी जरूरी है। साधक जिस समय सांसारिक रुचि का त्याग कर अपने स्वरूप में स्थित रहता है, उस समय वह स्थिर बुद्धि कहा जाता है। साधक के लिए स्थिर बुद्धि का बहुत महत्व है। वेदांत में श्रद्धा कहा जाता है। स्थिर बुद्धि के बारे में गीता बताती है-
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।
दुखें की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों के मिलने पर जिसके मन में चाहत-सपृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मुनि (मनन शील ब्यक्ति) स्थिर बुद्धि कहा जाता है।
मोहम्मद के जीवन वृत्त से स्पष्ट है कि वे ऐसे एक और स्थिर बुद्धि वाले साधक थे। बचपन से ही वह सत्यनिष्ठ और ईश्वरोन्मुखी थे। ईश्वर के प्रति उनकी एकात्मक बुद्धि कभी डिगी नहीं। संसार में रहते हुए भी उनका पारमार्थिक था। दुखों के पहाड भी उन्हें विचलित नहीं कर सके। सत्ता सूत्र हाथ में आने के बाद भी वह पहले की तरह सादगी पसंद और संयमी बने रहे। जूते साफ कर लेने, कपडे सिल लेने और खाना बनाने जैसे घरेलू कार्य भी वह खुद कर लेना पसंद करते । रामायण के राजा जनक की तरह वैरागी। योग भोग मंह राखेहु गोई जैसे। अक्रोधी थे। डरते केवल अल्लाह से थे। लोगों ,अल्लाह से डरो। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। यही संदेश देते रहे। लालच और जान का भय भी उन्हें रंच मात्र भी नहीं हिला सके। नबूबत के बाद काबा के प्रबंधन में ऊंची हैसियत, अच्छी शादी और पैसा के लालच भी उनकी स्थिर बुद्धि को प्रभावित नहीं कर सके।
रामायण में राम देवर्षि नारद को संतों के लक्षण बताते हुए स्थिर बुद्धि का भी नाम लेते हैं-
षट विकार जित अनघ अकामा,अचल अकिंचन सुचि सुख धामा।
अमित बोध अनीह मित भोगी, सत्य सार कवि कोविद जोगी।
सावधान मानद मदहीना, धीर धर्म गति परम प्रवीना।
संत काम, क्रोध, लोभ,मोह, मद और ईर्ष्या इन छह विकारों-दोषों को जीते हुए, पाप रहित,कामना रहित, स्थिर बुद्धि, अकिंचन , बाहर भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान,इच्छा रहित, मितहारी(शरीर निर्वहन को जितना जरूरी है उतना ही खाने पीने वाले), सत्य निष्ठ, कवि , विद्वान, योगी , सावधान रहने वाले, दूसरों को मान देने वाले , अभिमान रहित, धैर्यवान तथा धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण होते हैं। इन गुणों के चलते ईश्वर संतों के वश में रहते हैं।
पिछले लेख में हम मोहम्मद की आदतें और स्वभाव पर संक्षिप्त चर्चा कर चुके हैं। उनके संदर्भ में देखने पर पाते हैं कि संत के ये सभी गुण मोहम्मद में मिलते हैं। कहा जाता है कि 30 वर्ष की आयु तक मोहम्मद का जीवन प्राय: सामान्य ढंग से चलता रहा। इसके बाद ध्यान-साधना का क्रम बढ गया। वे पहाडी की एक गुफा में जाने लगे। वहां कई कई दिन -हफ्ते एकांत चिंतन में रहते। सन 610 में दस वर्ष की साधना के बाद अंतत: हकीकत खुल गयी। उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया या कहिए, ईश्वर दर्शन हुए।
ईश्वर दर्शन खाली नहीं जाता। लौकिक- पारलौकिक बडी सम्पदायें देकर जाता है। रामायण के एक प्रमुख पात्र विभीषण उच्चतम श्रेणी के साधक-संत के प्रतीक हैं। वह मोह रूपी रावण को छोड कर परमात्मा के शरणागत होते हैं तो श्री राम उनका समुद्र जल से तिलक करते हैं। राम कहते हैं कि यद्यपि मित्र तुम्हारी लंकाधिपति बनने की इच्छा नहीं है, लेकिन मेरा दर्शन निष्फल नहीं जाता।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं, मोर दरसु अमोघ जग माहीं।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा, सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।
ईश्वर ने मोहम्मद का भी तिलक किया। पैगम्बरी का तिलक। उन्हें राजाओं का राजा बनाया। कभी न खत्म होने वाला अनुपम साम्राज्य दिया। जब तक दुनिया- जहान है मोहम्मद धर्म -आकाश के सर्वाधिक जाज्वल्यमान सितारे बने रहेंगे और पीढियां उनसे प्रेरणा-प्रकाश पाती रहेंगी।
राम और मोहम्मद दोनों ने भटके हुए लोगों को भव सागर पार करने का रास्ता बताया। दोनों ने उस पर चल कर दिखाया भी। राम आचरण-व्यवहार के आदर्शों की उच्चतम रेखा खींच मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। अपनी श्रेष्ठता से मोहम्मद भी विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली महापुरुष बने हुए हैं। मोहम्मद ने मार्ग भी बताया और मंजिल भी। पैगम्बर के रूप में उन्हों ने ईश्वर प्रदत्त भूमिका का बखूबी निर्वहन किया। उन का निजी जीवन भी निष्कलुष और प्रेरणादायी है। प्रसिद्ध संत जैनाचार्य महाप्रज्ञ जी कहते थे कि बिना मार्ग के हम भटकते रहते हैं। मंजिल नहीं पाते। धर्म का भी एक मार्ग है – ज्ञान, दर्शन, चरित्र,तप और भक्ति का। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का मार्ग। मार्ग बिना गति नहीं होती। इस लिए मार्ग दिखाने वाला दुनिया में बहुत पूज्य होता है। मार्ग वही दिखा सकता है जिसने स्वयं मार्ग देखा हो। जो स्वयं चला हो या चल रहा हो। मोहम्मद ने धर्म मार्ग देखा भी था और उस पर चले भी थे।
ईश्वरावतार राम और पैगम्बर मोहम्मद दोनों ने सुख-सुविधाओं को छोड संघर्ष का रास्ता चुना। राम अयोध्या से खाली हाथ ‘तापस वेष विशेष उदासी’ वनवासित हुए। कुश-पत्तों के बिछौने पर सोये। वनवास में तमाम वन्य जातियों को संगठित कर शक्तिशाली सैन्य बल बनाया। लडे और आसुरी ताकतों का सफाया कर धर्म को स्थापित किया। मोहम्मद ने भी 52 साल की उम्र में काबा छोडा। खाली हाथ हिज्र में निकले। गुफा में जमीन पर सोये। मदीना पहुंच कर तमाम जन जातियों-कबीलों को संगठित किया। लडाइयों का नेतृत्व किया और काबा को मुक्त करा कर पुन: एकेश्वरवाद के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसके लिए वह काबा के संरक्षक अपने स्वजनों-कुटुम्बियों से लडे। संत विभीषण को भी अपने भाई रावण व अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ युद्धरत होना पडा था। इस्लाम से पूर्व अरब में तमाम देवी देवता कबीलों – जनजातियों के संरक्षक माने जाते थे। इनमें पेड, पत्थर से लेकर कुएं और झरने तक थे। काबा में विभिन्न कुल देवता और कबीलों के संरक्षक के रूप 360 देवी देवताओं की मूर्तियां थीं। देवियों को अल्लाह की बेटियां माना जाता था। मोहम्मद ने इन्हें हटवा कर काबा की पवित्रता बहाल की।
वैदिक विचारधारा मानती है कि ईश्वर दर्शन होने पर ब्यकित कंपित- रोमांचित और कभी कभी भयभीत हो जाता है। ईश्वर अनंत है। इस लिए उसके रूप-स्वरूप भी अनंत हैं। अदभुत,अखंड, सर्वब्यापी और विराट वगैरह। धर्नुधारी अर्जुन विराट रूप देख कांपने लगे थे। शिशु राम ने मां कौशल्या को ‘ निज अदभुत अखंड रूप दिखाया तो ‘विस्मयवंत महतारी’ की बोलती बंद हो गयी। .. तन पुलकित मुख बचन न आवा, नयन मूंदि चरननि सिर नावा। शिव पत्नी सती ने देखा तो डर गयीं। .. हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं, नयन मूंदि बैठी मग मांहीं। काक भुशुंडि के साथ भी यह हुआ।
ईश्वर दर्शन हुए तब मोहम्मद 40 के थे। किताबें कहती हैं कि रमजान में हफ्तों की ध्यान- साधना के बाद मोहम्मद जब घर आए तो वह बेहद व्यग्र- विचलित और रोमांचित थे। असहज और परेशान थे। उन्हों ने खदीजा से गुफा में हुई अनुभूति और फरिश्ता जिब्रील के संवाद के बारे में बताया। कहा कि मैं या तो पागल हो गया हूं या पैगम्बर। खदीजा ने उन्हें ढाढस बंधाया, आश्वस्त किया और उनके पैगम्बर होने की पुष्टि की। खदीजा ही मोहम्मद की रोशनी में ईमान लाने वाली पहली शख्स थीं। और इसी के साथ इस्लाम के उत्थान में महिलाओं के योगदान के स्वर्णिम अध्याय का श्रीगणेश हुआ । बाद में कई नाम सितारे चमके।
रामायण – गीता दोनों दृष्टियों से मोहम्मद अमर हैं। रामायण कहती है – ईश्वर को जान लेते ही ब्यक्ति ईश्वरमय हो जाता है। जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई । गीता कहती है-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ
सम दुखसुखं धीरं सो अमृतत्वाय कल्पते।
हे पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन, सुख दुख में सम रहने वाले जिस बुद्धिमान मनुष्य को ये मात्रा र्स्पश (पदार्थ) विचलित(सुखी दुखी ) नहीं करते, वह अमर होने में समर्थ हो जाता है। अर्थात अमर हो जाता है।(अगले अंक में गीता और कुरान की एक रूपता)
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