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प्रेम: स्वार्थ का ब्यापार या कुछ और !

DIL KI BAAT
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प्रेम! प्रेम! समझ में न आए तो सर्वाधिक मायावी-मृगमरीचिकीय ! आ जाए तो जीवन की राहें सरल-सरस कर दे, अपनी भी और दूसरों की भी ! ईश्वर से भी अधिक चर्चित,वांछित और अभिलषित! ‘ढाई आखर‘ का यह युग्म -तत्व ही तो सदियों से सब को नचाये-भटकाये है। जिसे पाना सब चाहते हैं, करना कोई कोई।
आखिर है क्या प्रेम? यह होता भी है या नहीं? क्या प्रेम की कोई रीति-नीति और नियम -शर्तें भी होती हैं? ये सवाल कुछ वैसे ही हैं जैसे ईश्वर के बारे में होते हैं। जवाब भी वैसे ही विशद और अनेक हैं!प्रेम के बारे में कुछ भी कह-लिख पाना वैसे कठिन है जैसे परमेश्वर के! कुछ भी कहिए, महिमा पूरी न पड़े! प्रेम का जादू सब के सर चढ़ कर बोलता है! इसके महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि धर्म ग्रंथों से लेकर हर भाषा के साहित्य का केन्द्रीय तत्व प्रेम ही सदैव से बना हुआ है।
तमाम भौतिक उन्नतियों और सुविधा-संसाधनों के बावजूद इंसान कितना अकेला,असहज, असुरक्षित भयभीत, पशुवत हिंस्र और हैरान-परेशान है। तनाव ग्रस्त, स्वाथी और प्रतिक्रियावादी है। इंसान ही इंसान का सब से बड़ा दुश्मन बना हुआ है। जीव-जंतुओं से उतने लोग नहीं मरते जितने इंसानी व्यवहार से। हत्या- आत्म हत्या के सवार्धिक मामले इंसानी व्यवहार की ही देन होते हैं।
इसका स्वाभाविक कारण माना जाता है प्रेम का अभाव। यानी प्रेम मानसिक-भावात्मक विकारों को दूर करने की महा औषधि है। स्वास्थ्य की संजीवनी है। प्रेम में समता-सम रसता रहती है । इससे लोक-परलोक दोनों संवरते हैं। घर-परिवार और देश-समाज इसी से बनते और चलते हैं। प्रेम मानवीय गुणों की खान है। धैर्य,शांति, संयम,सौहार्द, दया,दान, करुणा,अहिंसा, शौर्य, आस्तेय, भोग, वैराग्य, ज्ञान और भक्ति का उत्स है। साहित्य, संगीत, कला,निर्माण, सृजन ,विध्वंस और आविष्कार का प्रेरक-उत्प्रेरक है। विस्तार में आकाश और उपयोगिता में प्रकाश है।
मोटे तौर पर प्रेम दो रूपों में देखा जाता है – सांसारिक और आध्यात्मिक या ईश्वरीय। इश्क ए मजाजी और इश्क ए हकीकी। सांसारिक प्रेम छाया माना जाता है जो प्रायः सत्य नहीं होता। क्यों कि संसार ही सत्य नहीं है। सत्य से योग कराने वाला प्रेम आध्यात्मिक होता है जो हमेशा बढ़ता ही रहता है। प्रेम का सीधा एक फंडा होता है- किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो। ‘ स्व ‘ का ऐसा सीमातीत विस्तार कि संसार उसी में समा जाए। या ऐसा निःशेष समर्पण कि ‘स्व‘ की सत्ता ही मिट जाए।
अध्यात्म मानता है कि प्रेम और अहंकार साथ नहीं रहते। दोनों का सहज वैर है। अहंकारी हृदय में प्रेम का सुवास नहीं होता। अहंकार अज्ञान है। प्रेम-सूर्य के उदय होते ही अज्ञानाधंकार तिरोहित हो जाता है। प्रेम महत्ता से ओत प्रोत सभी धर्म ग्रंथ अहंकार को अधोगति में ले जाने वाला बताते हैं।
कुरान मजीद अहंकारियों की जगह नरक बताता है। सूरा अज जुमार का उद्घोष है- कहा जाएगा, प्रवेश करो नरक के दरवाजों में, यहां अब तुम्हें सदैव रहना है, यह अहंकारियों के लिए बड़ा ही बुरा ठिकाना है। प्रेम में क्षमाशीलता होती है। सूरा अल बुरूज की एक आयत अल्लाह को क्षमाशील,प्रेम करने वाला बताती है।
क्रांतिकारी संत कबीर का कहना है कि अहंकारी रूपी शीश काट कर भूमि में रख देने के बाद ही प्रेम के आंगन में प्रवेश पाया जा सकता है। न यह बगीचे में पैदा होता है और न बाजार में बिकता है। राजा-प्रजा जो चाहे अहंकार छोड़ कर इसे ले सकता है।
यह घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं
सीस उतारै भुंय धरै,तब पैठे घर माहिं।
प्रेम न बाड़ी उपजै,प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा को रुचै सीस देय लै जाय।

प्रेमावतार ईसा मसीह ने एक बार अपने सभी शिष्यों के पैर धोये। कहा- गुरू होकर मैंने ऐसा इस लिए किया कि तुम भी ऐसा किया करो। एक नयी आज्ञा देता हूं , तुम एक दूसरे को प्यार करो। प्रेम करोगे तो उसी से सब लोग जान जाएंगे कि तुम मेरे शिष्य हो। पैर धोना निरहंकारिता का प्रतीक था।
रामायण प्रेम सागर है। इस में उदात्त प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का अनुभव होता है। भाई- भाई,बाप-बेटा, पति-पत्नी, गुरू-शिष्य, शासक-शासित और भक्त-भगवान समेत सभी संबंधों के प्रेम-पक्षों का प्रदर्शन यहां मिलता है। यथा-
वन वासित राम सपत्नीक ऋषि-मुनियों संग सत्संग चर्चा में हैं। पहरे पर खड़े अनुज लक्ष्मण से भाई भरत के आने की सूचना मिलते ही उनकी क्या दशा होती है-
उठे राम सुनि प्रेम अधीरा, कहुं पट कहुं निसंग धनु तीरा।
राम ध्यान-धैर्य खो बैठे। इतनी तीव्रता से दौड़ कर भरत से मिलने को उठे कि कहीं पट गिरा तो कहीं पर तीर, तरकश और धनुष। व्याकुलता – अधीरता प्रेम का गुण है।
इसके पहले मार्ग में मिलने पर भरत ने अछूत गुह को ऐसे ह्नदय से लगा लिया था मानो छोटे भाई लक्ष्मण मिल गए हों। ह्नदय में प्रेम नहीं समा रहा था। क्यों कि निषाद भाई राम के मित्र थे। पति-पत्नी का प्रेम देखिए। सीता की खोज में जा रहे दूत हनुमान से राम इन शब्दों में संदेश भेजते हैं-
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा।
सो मन रहत सदा तोहिं पाहीं, जानु प्रीतिरस एतनेहि माहीं।

हे प्रियतमा, मेरे तुम्हारे प्रेम का मर्म केवल मेरा मन जानता है, वह भी सदा तुम्हारे पास रहता है। एक ओर विरही राम के साथ उनका मन भी नहीं है तो दूसरी ओर अशोक वाटिका में बंदी सीता को शीत चंद्रमा अग्निमय लग रहा है। पावक मय ससि स्रवत न आगी ़ ़ । विराहग्नि में जल रही सीता को आकाश के तारे आग के अंगारे और नयी कोपले अग्नि सदृश लग रहीं हैं। प्रगटत गगन अनल अंगारा, अवनि न आवत एकउ तारा। पुत्र वियोग में दशरथ का प्राणोत्सर्ग प्रेम का अन्य पक्ष है। राधा का एकनिष्ठ समर्पण और राजा बनने पर मिलने आये दीन हीन मित्र सुदामा के सूखे चावलों को श्री कृष्ण का चाव से खाना प्रेम का दूसरा पक्ष है। हजरत अली के पैर में जिस तीर को चिकित्सक लाख जतन के बाद भी नहीं निकाल पाए उसे नमाज अदा करते समय सरलता से निकाल लिया गया। अली को दर्द का अभास भी नहीं हुआ। परमेश्वर के प्रति समर्पण- प्रेम का एक रूप यह भी है।
सांसारिक प्रेम में जितने मुंह उतनी बाते हैं। यहां दिल दे बैठना और दिल के टुकड़े हुए हजार होना होता रहता है। फिर भी प्रेम प्रेय-श्रेय दोनो हंै। एक कथन है कि दूसरों से प्रेम करना अततः स्वयं से पे्रम करना है और दूसरों से घृणा स्वयं से घृणा का पर्याय है। स्वयं से प्रेम करने वाला ही दूसरों से प्रेम कर पाता है। प्रेम के बारे में कुछ कथन-
‘राह न रुकी‘ में डा. रांगेय राघव: प्रेम का पूर्णत्व दो भिन्न लिंग के प्राणियों में ही माना जाता है और यथार्थ का सत्य यह है कि पति से पत्नी का प्रेम केवल मन का प्रेम नहीं होता, होता है शारीरिक भी।
$ प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की सारी चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।
$ प्रेम और वासना में उतना ही अंतर है जितना कंचन और कांच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती है। भक्ति में सम्मान और प्रेम में सेवा भाव का आधिक्य रहता है।
$ कुछ पाश्चात्य लेखकों का विचार है कि स्त्री अपने सर्व प्रथम प्रेमी को कभी नहीं भुला पाती। उस के अपकारों को भी सह कर उत्कृष्ट प्रेम उसी की समर्पित करती है। वे लोग कहते हैं कि शारीरिक शक्ति से भी स्त्रियों का प्रेम पति पर विशेषता पाता है।
$ प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधन नहीं है। ऐसी बाधायें उस मनोभाव के लिए हैं जिसका अंत विवाह है। उस प्रेम का नहीं जिसका अंत बलिदान है।
$ मनुष्य मात्र को , जीव मात्र को प्रेम की लालसा रहती है। भोग लिप्सी प्राणियों में यह वासना का प्रकट रूप है। सरल हृदय प्राणियों में शांति भोग का।
$ प्रेम जितना ही आदर्शवादी होता है उतना ही क्षमाशील भी।
मंशी प्रेम चंद ‘रंग भूमि‘ में: आध्यात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म जगत की वस्तु है। स्त्री और पुरुष में पवित्र प्रेम होना असंभव है। प्रेम पहले उंगली पकड़ कर पहुंचा पकड़ता है। प्रेम में वह विस्मृति होती है जो संयम ,ज्ञान और धारणा पर पर्दा डाल डेती है। भक्त जन भी तो आध्यात्मिक आनंद भोगते रहते हैं वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते ।
$ संसार में ऐसे कितने दम्पत्ति हैं जिन्हें अगर दूसरी बार चुनाव का अवसर मिल जाए तो अपने पहले चुनाव से संतुष्ट हों।
हम प्रायः मोह- ममता को प्रेम मान लेते हैं , जब कि ये भिन्न हैं। मोह-ममता में अधिकारिता की, एक प्रकार के कब्जे की भावना होती है। यह तीव्र भावावेग जिसे हम प्रेम करते हैं उसे एक निजी वस्तु -सम्पत्ति में बदल देती है। उससे बदले में कुछ प्रतिदान- निष्ठा,विश्वास, समपर्ण वगैरह चाहती है। यह अधिकार भाव थोड़ा भी प्रभावित होने पर प्रतिक्रियात्मक रूप से भारी पीड़ादायी होता है। जब कि वास्तविक प्रेमी बदले में जिसे प्रेम करता है उसका सिर्फ कल्याण-सुख चाहता है। उसके व्यवहार में कभी कठोरता नहीं आती। मोह को सभी समस्याओं का मूल कहा गया है-मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।
हम चाहते हैं कि कोई, और सब, हमें प्रेम करें लेकिन प्रेम मिलता नहीं । फिर शिकायत होती है कि सब स्वार्थी- धोखेबाज हैं। इस संदर्भ में ध्यान देने की बात है कि कोई हमें प्रेम करे उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि हम प्रेम करें। लोग कहते हैं कि प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। लेकिन हमें प्रेम करना सीखना चाहिए। प्रेम के महत्व को समझेंगे तो करना भी आ जाएगा।
हम जिन्हें अपना और कभी कभी अपने से भी बढ़ कर समझते हैं , जिन के लिए बहुविध जूझते-खटते हैं, वे छोटी छोटी उपेक्षणीय बातों पर भी मारने-मरने पर उतारू हो जाते हैं। सायास या अनायास मर्मांतक चोट पहुंचाते हैं। जिन्हें कहते थे – हम तुम्हें बहुत प्यार करते हैं, तुम्हीं हमारी जिंदगी हो- उन्हें ही एक झटके में रर्दन मर्दन कर डालते हैं। कहां चला जाता है तब उनका प्रेम?
रामायण की एक चौपाई है – सुर नर मुनि सब की यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती। तो क्या प्रेम स्वार्थ का व्यापार है ? उत्तर कांड का एक अन्य प्रसंग इसकी पुष्टि करता है। यह माता-पिता से लेकर सभी सांसारिक संबंधों को स्वार्थाधारित बताता है-
अस सिख तुम बिन देइ न कोई, मात पिता स्वारथरत ओऊ
स्वारथ मीत सकल जग माहीं, सपनेहु प्रभु परमारथ नाहीं।

हे महाराज राम! इस जगत में एक आप और एक आपके सेवक, यानी भगवान और भक्त , ही बिना प्रयोजन उपकार करने वाले हैं। सांसारिक रिश्तों में माता पिता सब से बड़े हितकारी हैं, पर इन में भी स्वार्थ लगा है। मित्रता भी किसी न किसी प्रयोजन से की जाती है। स्त्रियों से पुरुष की मित्रता और भ्रमरों का फूलों पर अनुराग ऐसी ही स्वार्थ मित्रता का उदाहरण है। कुटुम्ब पालन में असमर्थ हो जाने पर स्त्री-पुत्रादि का रवैया बदल जाता है। वे पहले जैसा आदर नहीं करते। स्नेह में बंधे हुए भाई, माता पिता और संबंधी स्वार्थ के कारण उस पुराने प्रेम बंधन को तोड़ शत्रु बन जाते हैं। देवता भी सेवा के अनुकूल ही सुख देते हैं।यह संसार की रीति है। संसार में स्वार्थ का व्यापार ही चलता है।
यही बात एक औपनिषिदिक कहानी में भी है। वृद्धावस्था को प्राप्त महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी कनिष्ठा पत्नी कात्यायनी से कहते हैं- संसार के सारे संबंध स्वार्थ के संबंध हैं। परोपकार भावना से कोई काम नहीं करता। स्त्री पति को पति के लिए नहीं अपितु अपने मतलब से उसे प्यार करती है। यदि पति उसकी अपेक्षानुरूप प्यार न करे तो वह उपेक्षित होने पर इधर उधर झुक जाएगी। इसी तरह पुरुष स्त्री को स्त्री के हित के लिए नहीं , अपने मतलब से प्यार करता है।
पुत्र इस लिए प्रिय नहीं होता कि वह पुत्र होता है। उसके प्रेम के पीछे स्वार्थ – अपेक्षायें जुड़ी होती हैं। धन धन होने के लिए नहीं , अपनी उपयोगिता के लिए प्रिय होता है। किसी की उपयोगिता ही उसे समाज में उचित सम्मान व स्नेह दिलाती है। अपने प्रयोजन से ही लोग लोगों से प्यार करते हैं। देवताओं के लाभ के लिए कोई देवताओं से प्यार नहीं करता।
कबीर कहते हैं- प्रेमी ढूंढत मै फिरूं, प्रेमी मिलै न कोय
प्रेमी सो प्रेमी मिलै, बिष ते अमृत होय।
प्रेमी नहीं मिला। सब वस्तु पदार्थ के ही प्रेमी दिखे, फलतः जो मिला उससे केवल दुख मिला। पर जब भगवत्प्रेमी मिले तो दुख सुख में बदल गया। वे प्रेम के महत्व को जान लेने वाले को प्रेम कहते हैं-
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढै सो पंडित होय।
प्रेम प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्है कोय
आठ पहर भीगा रहै, प्रेम कहावै सोय।

सब प्रेम प्रेम की रट लगाते हैं, लेकिन प्रेम है क्या कोई नहीं जानता। वास्तविक प्रेम दिन रात एक समान प्रेम में सराबोर रहना है। कबीर ‘‘जा मारग साहब मिलै, प्रेम कहावै सोय‘‘ बताते हुए अंतरात्मा से प्रेम प्याला लगा रोम रोम में प्रेम भरने को कहते हैं-कबीर प्याला प्रेम का अंतर लिया लगाय।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि ज्ञान और भक्ति प्रेम रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम पूजा है जिसमें बदले में किसी वरदान की चाहना नहीं है। जीव और जगत के प्रति सही दृष्टिकोण ही वास्तविक ज्ञान है। ज्ञान होगा तो हृदय में प्रेम सागर हिलोरें मारेगा और चेहरे पर तेज व तुष्टि बन कर झलकेगा ही।
एक बात और है। हम कितने ही शक्ति और श्री सम्पन्न हों, कहीं न कहीं और कभी न कभी अपने में एक अपूर्णता महशूस करते हैं। अंतस में एक बेचैनी भरी रिक्तता, एक निर्वात सा लगता है। उसे हम भरना चाहते हैं। पूर्ण होना चाहते हैं। प्रेम उसी पूर्णता की तलाश या उद्यम की भाव चेतना है। अपूर्णता से पूर्णत्व की यात्रा। नदी का सागर बनने की उद्दाम प्यास। प्रकृति-परमेश्वर का यह खेल खेलने को हम विवश हैं। प्राणि मात्र, पेड़ पौधे तक , प्रेम पाश में बंधे हैं। पूर्णता हम परमेश्वर में पाते हैं ,लेकिन प्रेम तो उससे भी बड़ा है। ज्ञान से वह मिलता है, तो प्रेम से प्रकट होता है। वश में रहता और नाचता है। प्रेम ते प्रकट होहिं भगवाना । यानी परमेश्वर भी प्रेम का प्यासा है। (अगली पोस्ट ‘सुख’ पर)

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