- 29 Posts
- 1765 Comments
वैसे तो निराला की जन्म तिथि 21फरवरी, 1896 बतायी जाती है, पर इसे बसंत पंचमी को मनाने की परंपरा है। शायद इस लिए कि स्वयं महाप्राण इस दिन ही अपना जन्म दिन मनाते थे। इसी बहाने इलाहाबाद में दारागंज स्थित निराला निवास ‘नाग वासुकि’ साहित्य-संगीत साधकों की महफिल से जगमगा जाता था। बसंती माहौल में भंग छनती और निराला भी हारमोनियम बजाते-गाते। उन्हें बसंत बहुत प्रिय था।
इस साल भी कहीं कहीं निराला जयंती मनाने की रस्म-निभाई हुई। मन-बेमन कुछ कवि कर्मी-लेखक एक जगह जुटे और सुना-सुनाया। इस अंदाज में कि हिंदी के छात्रों तक को इस का पता न चला। कोई हलचल नहीं, कोई ऊष्मा-उत्साह नहीं। ऐसे कवि-दार्शनिक के बारे में सरकार के सरकारों के बारे में तो सोचना ही निरर्थक है।
निराला के साथ यह सलूक कुछ अहम सवाल छोड जाता है। कहीं हमारा जीवन, चिंतन और संवेदनायें भी तो रस्मी नहीं होती जा रहीं ? कवियों-कलाकारों और महापुरुषों-मनीषियों को ईमानदारी से यथोचित महत्व दिये बिना आने वाली पीढी के प्रति कर्तव्य निर्वहन संभव है ? या फिर, कुछ साहित्यिक-बौद्धिकनुमा विमर्शां से इतर निराला की प्रासंगिकता नहीं है ? इस जयंती के बाद एक दिन लेखकों-साहित्यकारों पर हो रही अनौपचारिक चर्चा में मेरे वरिष्ठ सहयोगी श्री राकेश सारस्वत की एक टिप्पणी ने मुझे अचंभित कर दिया। यह निराला की कथित चारित्रिक कमजोरी को लेकर थी। श्री सारस्वत बहुपठित और विद्वान हैं। उनके विपरीत मेरा मानना है कि निराला का काव्य और जीवन दोनों निष्कलुष था। सहज ब्यक्तित्व-विराटता और विलासिता एक साथ नहीं चल सकते। हांलाकि संपादकीय प्रभारी डा. शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी ने मेरी मान्यता का समर्थन किया लेकिन मेरे अंतस में हलचल मची रही। निराला के विलक्षण ब्यक्तित्व, साये की तरह पीछा करने वाले उनके दुख-दुर्भाग्य, अभाव, कविता के साथ ही कसरत प्रेम और परमहंसी प्रगति के बारे में पढी-सुनीं तमाम बातें रह रह कर घुमडती रहीं । निराला को हम आप भी कुछ श्रद्धा-सुमन अर्पित करें इस अपेक्षा -भाव से मैं ने इनके साथ आप सब के समक्ष ब्लाग -मंच पर जाने का निश्चय किया। हिंदी साहित्य प्रेमियों में जितने किस्से निराला के बारे में चर्चित हैं उतने किसी और कवि-लेखक के बारे में नहीं।
निराला मुझे ऐसे विशिष्ट ब्यक्तित्व लगते हैं जो शायद अपने रचना कर्म से भी अधिक अपने जीवन वृत्त के लिए सदैव प्रसंगिक रहेंगे। उनका सृजन निस्संदेह महनीय है, लेकिन उनकी जीवन यात्रा उस पर भी भारी है। यह जीवन-शास्त्र के अध्येताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी जीवन कथा ही महा काव्य है। महा प्राणत्व जिसका उदात्त नायक है और करुणा जिसका स्थायी भाव। जीवन समर में यह अपराजेय योद्धा अपने संस्कार और संकल्प शक्ति के सहारे युद्धरत रहता है क्रूर काल-चक्रों से। नियति के निर्मम व हाहाकारी झंझावातों से। बदले में मिलता है उसे दु:ख। एक के बाद एक मारक और विद्रूप रूपों में। लगता है जैसे भाग्य की ओर से मूर्तिमान दु:ख को ही इस महा मानव के मुकाबले को आना पडा हो।
कुछ विशिष्ट साहसी लोग ही जीवन-रहस्य सुलझाने और संसार-सत्य उद्घाटन के आग्रही होते हैं। कोई तर्क-विज्ञान-बौद्धिक राहें तो कोई कला-संगीत-साहित्य का साधक बन। उद्देश्य प्राय: सभी का रहता है स्व के साथ लोक का कल्याण। इन में से कोई ऐसे विरले निराले सारस्वत साधक होते हें जो लोक व सत्य के लिए स्व की उपेक्षा कर जाते हैं। ये ही महा प्राण महामानव कहलाते हैं। पं. सूर्य कांत त्रिपाठी ‘निराला’ ऐसे ही सरस्वती पुत्र थे। उन्हें अपने जीवन काल में भले ही अपेक्षित स्वीकार्यता न मिली हो पर आज वे कबीर,सूर और तुलसी के बाद हिंदी साहित्याकाश के सर्व प्रमुख जाज्वल्यमान नक्षत्र माने हैं।
निराला का जीवन इस स्वार्थ-हिंस्र संसार के एक नंगे सच से भी मुठभेड कराता है। बुद्धिजीवियों का समाज बेहद कठोर और अहं-आग्रही होता है । यह आप पर महाकवि, महाप्राण, महमानव, निराला और औढरदानी जैसे विशिष्ट विशेषण तो बरसा सकता है, पर आप को चैन से जीने नहीं दे सकता। रोटी-सम्मान नहीं दे सकता। इसके लिए आपको डा्इविंग सीट पर बैठे लोगों से अपेक्षित तालमेल बैठाने की कला आनी चाहिए। विचार-ब्यवहार उनके खानों के अनुरूप होने चाहिए।
निराला ने उपन्यास, निबंध, कहानी , काव्य क्या नहीं लिखा। खूब लिखा और श्रेष्ठ लिखा। रेखा चित्र बनाये। अनुवाद किये। वह वेदांत, राष्ट्वाद, रहस्यवाद, प्रकृति प्रेम और मानवतावादी प्रगतिशील आदर्शों के पहरुआ और पोषक थे। सामाजिक अन्याय,शोषण और जड रूढियों के खिलाफ उन्हों ने जम कर लिखा। आज वह आधुनिक हिंदी साहित्य के सर्वाधिक ऊंचे आसन पर विराजमान हैं, लेकिन अपने जीवन काल में वह अस्वीकार्यता और उपहास के ही शिकार होते रहे। उनकी अधिकांश रचनायें विद्रोही तेवर, क्रांतिधर्मी होने और परंपरागत शैली में न होने के कारण अस्वीकृत कर दी जाती थीं। उन्हें पेट भरने के लाले पडते थे। वह अपनी पुत्री के प्रति अभाव के चलते पिता का कर्तब्य नहीं निभा पाए। उसकी ढंग से शादी नहीं कर पाए। न इलाज करा पाए। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी और पदुम लाल पुन्ना लाल बख्सी जैसे सरस्वती-संपादकों ने ‘जूही की कली’ और ‘अधिवास’ लौटा दी थीं। महा कवि -महाप्राण होने की भारी कीमत निराला को आजन्म चुकानी पडी। चालू प्रकाशकों ने 20-30 रुपये में एक दो कविताओं की आड में उनके प्राय: सभी काव्य संग्रह कब्जे में ले लिये और मोटे पैसे बनाते रहे। इस घोर विपन्नता को निराला ने ‘हिंदी का स्नेहोपहार’ कहा था। अपनी इकलौती पुत्री सरोज की आकस्मिक मृत्यु के साथ ही निराला टूट गए।कह सकते हें कि लगभग 39 वर्ष की उम्र में वह दुखातीत हो गए। उन्हों ने दु:खों की सीमा पार कर ली। फिर उनके लिए निजी दु:ख,असफलता , हताशा, पैसा-प्रतिष्ठा सब अर्थहीन हो गए। प्रियतमा पत्नी के बाद पुत्री ही उनका भावात्मक आधार बन गयी थी। अपना कुछ न रहा। ब्यष्टि समष्टिगता हो गया।
तो क्या निराला ने हार मान ली ? नही, वह हारे नहीं। झुके नहीं। अपने संस्कारों -विचारों के विपरीत समझौते नहीं किये। फकीर हो कर भी तबीयत और ब्यवहार में बादशाह ही रहे। उनके भीतर का योद्धा अप्रतिहत ही रहा। अन्यथा वह कैसे गा पाते ‘ हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती’।
दो-एक अल्पकालिक अवसरों को छोड निराला का पूरा जीवन दुर्भाग्य, दुर्घटनाओं और दु:खों से भरा रहा। बचपन में मां गुजर गयीं। पिता से अपेक्षित स्नेह-छाया मिली नहीं। मैट्कि के बाद स्कूली पढाई छूट गयी। घर पर ही स्वाध्याय से संस्कृत और अंग्रेजी पढी। बंगाल छूटा और पैतृक गांव गढाकोला( उन्नाव) आना पडा। 16 की उम्र में थे तब शादी हुई। पत्नी अनोहरा देवी बहार बन कर आयीं। वह हिंदी सीखने और बंगाली के बजाय हिंदी में कवितायें लिखने को प्रेरित कर हिंदी और रामायण की प्रथम गुरू बनीं। लेकिन यह मधुमास चार साल ही रहा। यही उनके जीवन के सर्वाधिक सुखद दिन थे। निराला 20 वर्ष के ही थे जब पत्नी के स्वर्गवास के रूप में उन पर वज्रपात हो गया। पत्नी -प्रेम में निराला ने दूसरी शादी न करने का निश्चय किया। ननिहाल ने अबोध बेटा-बेटी को संभाला। दो चार साल बाद ही दूसरी शादी के लिए दबाव पडने लगे। निराला जब 26 वें साल में थे तो सास ने उनकी प्राय: घेराबंदी कर ली थी। एक इंटर पास सुंदर कन्या से रिश्ता तय कर। अंतत्ा: संतान के लिए विमाता न लाने के निश्चय की जीत हुई और निराला ने बच्ची सरोज को अपनी कुंडली खेलने को दे कर इरादे स्पष्ट कर दिए। बच्ची ने उसके टुकडे टुकडे कर दिए।
बडी होने पर सास के कहने पर सरोज को अपने साथ लाना पडा। शादी के कुछ साल बाद ही ननिहाल में सवा अठारह साल की उम्र में हुई मातृहीना बेटी की मृत्यु से निराला का चट्टानी ब्यक्तित्व चीत्कार कर उठा। बेटी की याद में निराला की कालजयी रचना ‘सरोज स्मृति’ आयी। 1935 में रचित यह एक ऐसा अदभुत शोक गीत है जिसमें पिता अपने सम्पूर्ण कर्मों का अर्पण करके पुत्री का तर्पण करता है। समीक्षकों ने इसे विस्फोटक दु:ख का स्फोट बताया है। निराला ने इस में धन न कमा पाने की अपनी कमजोरी, बेटी का पालन पोषण न कर पाने की पीडा , उसकी शादी के लिए मारे मारे भटकने, कन्नौजियों के लालचीपन और शादी में अपनी पत्नी की स्मृति का मार्मिक अभिव्यंजन किया है। धनाभाव में शादी भी निराले ढंग से हुई थी। न बाजे-गाजे, न औपचारिक निमंत्रण, न नाते-रिश्तेदार और विवाह की रौनक। पहले तो पंडितों ने भी इंकार कर दिया था। निराला खुद शादी के मंत्र पढने को तैयार हुए तो मुश्िकल से पंडित आया। वह स्वयं के बारे में लिखते हैं- ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत।
निराला के काव्य में समीक्षकों ने अंर्तद्वंद, ओज, कभी हताशा, संशय, कातर क्रंदन और सहिष्णुता पायी है। उनका रचना कर्म भारतीय अध्यातम दर्शन से अनुप्रेरित है। उसमें भक्तिभाव की अंर्तधारा प्रवाहित है। उन्हों ने एक प्रदीर्घ कविता ‘ राम की शक्ति पूजा’ लिखी जिसमें – रवि हुआ अस्त- से काव्यारंभ हुआ। मंगलाचरण के बजाए सूर्यास्त से कविता की शुरुआत उनका विशिष्ट प्रयोग है। निराला से हहरा तादातम्य महशूस करते थे और हनुमान के प्रति श्रद्धानिष्ठ थे। ‘ रवि हुआ अस्त’ में रावण से पश्त राम शक्ति पूजा करते हैं। उस दिन अमोघ कहे जाने राम के मंत्रविद्ध बाण निशाने पर नहीं लग रहे थे और राम अपने दिव्य शस्त्रों को खंडित होते देख हतप्रभ थे। रावण ने उन्हें अपने शरों से ऐसे बींध दिया कि राम अपनी रक्षा कर पाने में भी अशक्त पा रहे थे।
निराला को साहित्यानुरागियों में तमाम प्रसंग- किस्से प्रचलित हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्री अशोक चौधरी का सुनाया एक प्रसंग है- एक बार प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद थे। उन्हों ने आनंद भवन में निराला से मिलने की इच्छा जतायी। नेहरू का आग्रह ले कर आए लोगों से निराला ने यह कह कर जाने से मना कर दिया ‘ उससे कह देना वह भारत का प्रधान मंत्री है तो मैं कविता राष्ट्पति हूं।’ ( निराला की याद कर जब महादेवी जी मंच में रो पडीं, अगली पोस्ट में)
Read Comments